ISC Hindi Previous Year Question Paper 2019 Solved for Class 12

Maximum Marks: 100
Time Allowed: Three Hours

(Candidates are allowed additional 15 minutes for only reading the paper.
They must NOT start writing during this time.) Answer questions 1, 2 and 3 in Section A and four other questions from Section B on at least three of the prescribed textbooks. The intended marks for questions or parts of questions are given in brackets [ ].

Section-A-Language (50 Marks)

प्रश्न 1.
Write a composition in approximately 400 words in Hindi on any ONE of the topics given below : [20]
किसी एक विषय पर निबंध लिखिए जो 400 शब्दों से कम न हो :

(i) ‘तकनीकी विकास ने मानव को सुविधाओं का दास बना दिया है’ – इस विषय पर अपने विचार व्यक्त – कीजिए।
(ii) ‘वर्तमान युग में आगे बढ़ने के लिए धन की आवश्यकता है न कि प्रतिभा की’ – इस विषय के पक्ष या विपक्ष – में अपने विचार लिखिए।
(iii) पुस्तक एक सच्ची मित्र, गुरु और मार्गदर्शक का कार्य करके जीवन की धारा को बदल सकती है – ‘मेरी प्रिय पुस्तक’ विषय पर अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
(iv) ‘निरंतर अभ्यास करने से इच्छित कार्य में सफलता मिलती है।’- इस कथन को अपने जीवन के किसी निजी अनुभव द्वारा विस्तारपूर्वक लिखिए।
(v) ‘सहशिक्षा के माध्यम से बालक-बालिका के मध्य मित्रता और समानता का भाव जागता है।’ – इस विषय पर अपने विचार विस्तारपूर्वक लिखिए।
(vi) निम्नलिखित में से किसी एक विषय पर मौलिक कहानी लिखिए –

(a) ‘साँच को आँच नहीं’।
(b) एक ऐसी मौलिक कहानी लिखिए जिसका अंतिम वाक्य हो :
……… और इस तरह उन्होंने मुझे माफ कर दिया।
उत्तर:
(i) आज का युग विज्ञान व प्रौद्योगिकी का युग है। नये-नये आविष्कारों ने हमें इतनी सुविधाएँ प्रदान कर दी हैं कि हम उनके दास बन गए हैं। एक क्षण भी इन सुविधाओं के अभाव में रहना कठिनसा प्रतीत होता है। कंप्यूटर और मोबाइल की सुविधा ने हमें एक तरह से अपंग बना डाला है। हम कोई भी कार्य इन दो उपकरणों से जुड़ी सुविधाओं के अभाव में करने के लिए स्वयं को अक्षमसा अनुभव करते हैं।

कंप्यूटर को यांत्रिक मस्तिष्क भी कहा जाता है। यह अत्यंत तीव्र गति से न्यूनतम समय में अधिकसे-अधिक गणनाएँ कर सकता है तथा वह भी बिल्कुल त्रुटि रहित। आज तो कंप्यूटर को लेपटॉप के रूप में एक छोटे से ब्रीफकेस में बंद कर दिया गया है जिसे जहाँ चाहे वहाँ आसानी से ले जाया जा सकता है।

कंप्यूटर आज के युग की अनिवार्यता बन गया है तथा इसका प्रयोग अनेक क्षेत्रों में किया जा रहा है। बैंकों, रेलवे स्टेशनों, हवाई अड्डों आदि अनेक क्षेत्रों में कंप्यूटरों द्वारा कार्य संपन्न किया जा रहा है। आज के युद्ध तथा हवाई हमले कंप्यूटर के सहारे जीते जाते हैं। मुद्रण के क्षेत्र में भी कंप्यूटर ने क्रांति उत्पन्न कर दी है। पुस्तकों की छपाई का काम कंप्यूटर के प्रयोग से अत्यंत तीव्रगामी तथा सुविधाजनक हो गया है। विज्ञापनों को बनाने में भी कंप्यूटर सहायक हुआ है। आजकल यह शिक्षा का माध्यम भी बन गया है। अनेक विषयों की पढ़ाई में कंप्यूटर की सहायता ली जा सकती है।

कंप्यूटर यद्यपि मानव-मस्तिष्क की तरह कार्य करता है परंतु यह मानव की तरह सोच-विचार नहीं कर सकता केवल दिए गए आदेशों का पालन कर सकता है। निर्देश देने में ज़रा-सी चूक हो जाए तो कंप्यूटर पर जो जानकारी प्राप्त होगी वह सही नहीं होगी।

कंप्यूटर का दुरुपयोग संभव है। इंटरनेट पर अनेक प्रकार की अवांछित सामग्री उपलब्ध होने के कारण वह अपराध प्रवृत्ति चारित्रिक पतन एवं अश्लीलता बढ़ाने में उत्तरदायी हो सकती है। कंप्यूटर के लगातार प्रयोग से आँखों की ज्योति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसका अधिक प्रयोग समय की बरबादी का कारण भी है। एक कंप्यूटर कई आदमियों की नौकरी ले सकता है। भारत जैसे विकासशील एवं गरीब देश में जहाँ बेरोज़गारों की संख्या बहुत अधिक है, वहाँ कंप्यूटर इसे और बढ़ा सकता है। फिर भी हम इस सुविधा के दास बनते जा रहे हैं।

कंप्यूटर की भाँति मोबाइल फ़ोन भी आज जीवन की अनिवार्यता बन गया है। आज से कुछ वर्ष पूर्व इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि हम किसी से बात करने के लिए किसी का संदेश सुनाने के लिए किसी छोटे से यंत्र को अपने हाथ में लेकर घूमेंगे। इस छोटे से यंत्र का नाम है, मोबाइल फ़ोन। मोबाइल फ़ोन से जहाँ चाहें, जिससे चाहें, देश या विदेश में कुछ ही क्षणों में अपना संदेश दूसरों तक पहुँचाया जा सकता है और उनकी बात सुनी जा सकती है। यही नहीं इस उपकरण से (एस. एम. एस.) संदेश भेजे और प्राप्त किए जा सकते हैं। समाचार, चुटकुले, संगीत तथा तरह-तरह के खेलों का आनंद लिया जा सकता है। किसी भी तरह की विपत्ति में मोबाइल फ़ोन रक्षक बनकर हमारी सहायता करता है।

आजकल बैंकिंग, बिल भुगतान, आरक्षण, आवेदन, मौसम संबंधी ज्ञान व पूर्वानुमान आदि के प्रसंग में भी मोबाइल उपयोगी है। सोशल मीडिया के बिना आज का जीवन बोझिल सा लगता है। कुल मिलाकर इन सुविधाओं ने हमें अपना दास बना डाला है।

(ii) वर्तमान युग में आगे बढ़ने के लिए धन की आवश्यकता है न कि प्रतिभा की सृष्टि के समस्त ‘चराचरों में मानव को अखिलेश की सर्वोत्कृष्ट कृति कहा गया है। मानव अपनी बौद्धिक, मानसिक तथा चारित्रिक विशेषताओं के कारण सर्वश्रेष्ठ है। केवल मनुष्य ही उचित-अनुचित का निर्णय कर सकता है तथा अपने चरित्र के बल पर समाज को नई दिशा दे सकता है। समाज में उसकी प्रतिष्ठा का आधार कुछ मानवीय मूल्य थे जो केवल उसी में पाए जाते हैं। कहा भी है – ‘येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञान न शीलं न गुणो न धर्म: ते मृत्युलोके भुवि भारभूता मनुष्य रूपेण मृगाश्चरिन्त।’

परोपकार, दया, करुणा, मैत्री, सत्यनिष्ठा आदि चारित्रिक विशेषताओं के आधार पर समाज में मनुष्य की प्रतिष्ठा थी। बुद्ध, महावीर स्वामी, विवेकानंद, दयानंद, बाबा आमटे तथा प्रेमचंद जैसे अनेक उदाहरण इस बात का प्रमाण हैं कि केवल धन ही मनुष्य की प्रतिष्ठा का आधार नहीं होता। आज स्थिति बदल गई है। आज के युग में भौतिकता का बोलबाला है। नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है, प्रदर्शनप्रियता ही जीवन-शैली बन गई है। आज दुर्भाग्य से मनुष्य की प्रतिष्ठा का आधार मानवीय गुण न होकर धन-संपत्ति हो गए हैं। जिस व्यक्ति के पास धन-संपत्ति का अभाव है वह गुणी होते हुए भी समाज में आदर नहीं पाता। आज समाज में धनी की पूजा होती है। उसी का रुतबा है तथा हर जगह उसी की पूछ है। इससे बड़ी आश्चर्य की बात क्या हो सकती है कि धार्मिक स्थलों पर भी धनी का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। आज हमारी सोच एवं दृष्टिकोण इस हद तक दूषित हो चुके हैं कि नैतिक मूल्य नगण्य हो गए हैं। समाज में जिस प्रकार छल-कपट, बेईमानी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, तस्करी, कालाबाजारी जैसी बुराइयाँ बढ़ती जा रही हैं उसके लिए कहीं-न-कहीं धन का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

आज के समाज में हर स्तर पर धन का बोलबाला है। धर्म, राजनीति, शिक्षा, साहित्य जैसे सभी क्षेत्रों में धन के व्यापक प्रभाव को स्पष्ट देखा जा सकता है। धनी व्यक्ति अपने बालकों को अच्छे विद्यालयों में भेजते हैं, राजनीति में केवल धनी व्यक्ति ही प्रवेश कर सकते हैं। बड़े-बड़े समारोहों, उत्सवों एवं आयोजनों में धनिकों का ही गुणगान किया जाता है, जिसे देखकर इस कथन पर विश्वास करना पड़ता है – ‘सर्वेगुणा कांचनमाश्रयंति’ आज धन के आधार पर ही अमेरिका की तूती सारे विश्व में बोलती है।

यद्यपि धन के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता परंतु केवल धन ही मानवीय प्रतिष्ठा का आधार नहीं है। क्या मदर टेरेसा, महात्मा गांधी, लालबहादुर शास्त्री, निराला आदि की प्रतिष्ठा का आधार उनकी आर्थिक स्थिति अथवा धन-संपत्ति थी? इसी प्रकार के अनेक व्यक्तियों के नाम गिनाए जा सकते हैं जिन्होंने धन को कोई महत्त्व नहीं दिया लेकिन आज भी उनका नाम आदर सहित लिया जाता है। निष्कर्षतः केवल धन को ही मनुष्य की प्रतिष्ठा का आधार नहीं माना जा सकता। प्रतिभा एक ऐसा मौलिक व मानवोचित गुण है जिसके अभाव में हम जीवन व मानवता में उत्कर्ष पर कभी नहीं पहुँच सकते।

(iii) पुस्तकें ज्ञान का भंडार होती हैं तथा पुस्तकों द्वारा ही हमारा बौद्धिक एवं मानसिक विकास संभव होता है। ज्ञान प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन होने के साथ-साथ, पुस्तकें हमें सामाजिक व्यवहार, संस्कार, कर्तव्यनिष्ठा जैसे गुणों के संवर्धन में सहायक सिद्ध होती हैं तथा प्रबुद्ध नागरिक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। पुस्तकें हमारी सच्ची मित्र एवं गुरु भी होती हैं। अच्छी पुस्तकें चिंतामणि के समान होती हैं, जो हमारा मार्गदर्शन करती हैं तथा हमें असत् से सत् ‘की ओर, तमस से ज्योति की ओर ले जाती हैं। पुस्तकें हमारा अज्ञान दूर करके हमें प्रबुद्ध नागरिक बनाती हैं।

जिस प्रकार संतुलित आहार हमारे शरीर को पुष्ट करता है, उसी प्रकार पुस्तकें हमारे मस्तिष्क की भूख को मिटाती हैं। समाज के परिष्कार, व्यावहारिक ज्ञान में वृद्धि एवं कार्यक्षमता तथा कार्यकुशलता के पोषण में भी पुस्तकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। पुस्तकों के अध्ययन से हमारा एकाकीपन भी दूर होता है।

हाल में ही मैंने श्री विद्यालंकार द्वारा रचित ‘श्रीरामचरित’ नामक पुस्तक पढ़ी जो तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ पर आधारित है। हिंदी में लिखी होने के कारण इसे पढ़ना सुगम है। इस रचना में श्री राम’ की कथा को अत्यंत सरल भाषा में सात सर्गों में व्यक्त किया गया है। पुस्तक मूलतः तुलसी कृत रामचरितमानस का ही हिंदी अनुवाद प्रतीत होती है।

यह पुस्तक मुझे बहुत पसंद आई तथा इसीलिए मेरी प्रिय पुस्तक’ बन गई। इस पुस्तक में पात्रों का चरित्र अनुकरणीय है। पुस्तक में लक्ष्मण, भरत और राम का, सीता और राम में पति-पत्नी का, राम और हनुमान में स्वामी-सेवक का, सुग्रीव और राम में मित्र का अनूठा आदर्श चित्रित किया गया है।

यह पुस्तक लोक-जीवन, लोकाचार, लोकनीति, लोक संस्कृति, लोक धर्म तथा लोकादर्श को प्रभावशाली ढंग से रूपायित करती है। श्री राम की आज्ञाकारिता तथा समाज में निम्न मानी जाने वाली जातियों के प्रति स्नेह, उदारता आदि की भावना आज भी अनुकरणीय है। ‘गुह’, केवट’ तथा ‘शबरी’ के प्रति राम की वत्सलता अद्भुत है। श्री राम का मर्यादापुरुषोत्तम रूप आज भी हमें प्रेरणा देता है। उन्होंने जिस प्रकार अनेक दानवों एवं राक्षसों का विध्वंस किया, उससे यह प्रेरणा मिलती है कि हमें भी अन्याय का डटकर विरोध ही नहीं करना चाहिए वरन उसके समूल नाश के प्रति कृत संकल्प रहना चाहिए। सीता का चरित्र आज की नारियों को बहुत प्रेरणा दे सकता है। इस पुस्तक की एक ऐसी विशेषता भी है, जो तुलसी कृत रामचरितमानस से भिन्न है। पुस्तक में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के चरित्र को भी उजागर किया गया है।

विवाह के उपरांत लक्ष्मण अपने अग्रज राम के साथ वन को चले गए; पर उनकी नवविवाहिता पत्नी उर्मिला अकेली रह गई। तुलसीदास जैसे महाकवि की पैनी दृष्टि भी उर्मिला के त्याग, संयम, सहनशीलता तथा विरहवेदना पर नहीं पड़ी। विद्यालंकार जी ने उर्मिला के उदात्त चरित्र को बखूबी चित्रित किया है। पुस्तक में ज्ञान, भक्ति एवं कर्म का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक के अंत में रामराज्य की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख किया गया है। ‘रामराज्य’ की कल्पना हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी की थी। इस प्रकार पुस्तक में वर्णित रामराज्य आज के नेताओं एवं प्रशासन के लिए मार्गदर्शन का कार्य करता है।

यद्यपि पुस्तक ‘श्रीराम’ के जीवन चरित्र पर आधारित है तथापि इसमें कहीं भी धार्मिक संकीर्णता आदि का समावेश नहीं है। यह पुस्तक सभी के लिए पठनीय तथा प्रेरणादायिनी है।

(iv) मानव जीवन में उन्नति के लिए जिन अनेक गुणों की आवश्यकता पड़ती है, उनमें सतत अभ्यास भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। सतत अभ्यास तथा परिश्रम के सहारे मूर्ख भी बुद्धिमानं बन जाता है। कहा भी है –

‘करत-करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान,
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान’

अर्थात् जिस प्रकार कुएँ से बार-बार पानी खींचने से पत्थर पर भी कोमल रस्सी चिहन छोड़ देती है, उसी प्रकार निरंतर अभ्यास से मूर्ख (जड़मति) भी चतुर (सुजान) बन जाता है। कवि वृंद के इस दोहे में अभ्यास के महत्त्व की ओर इंगित किया गया है।

व्यक्ति के जीवन में अभ्यास की भूमिका असंदिग्ध है। यह बात अनुभव-सत्य है कि पाषाण युग का आदिमानव अभ्यास के बल पर ही आज अंतरिक्ष युग में पहुँच सका है। अभ्यास के अभाव में व्यक्ति अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता। वैज्ञानिकों ने सतत अभ्यास एवं परिश्रम के बल पर ही अनेक आश्चर्यजनक आविष्कार हमें प्रदान किए हैं।

प्रसिद्ध भारतीय हॉकी खिलाड़ी ध्यानचंद के संबंध में विदेशियों का मानना था कि उनकी हॉकी स्टिक में कोई जादू है, जिसके कारण गेंद उससे चिपककर चलती है, पर यह वास्तविकता नहीं थी। उनकी हॉकी एक सामान्य स्टिक मात्र थी। गेंद का स्टिक से चिपककर चलने का रहस्य थासतत अभ्यास। एक शिशु अभ्यास के बल पर ही लिखना-पढ़ना सीख जाता है। कालिदास जैसा महामूर्ख निरंतर अभ्यास के बल पर संस्कृत का सर्वश्रेष्ठ कवि बन सका, एकलव्य जैसा सामान्य भील बालक अभ्यास के बलबूते पर ही अर्जुन से भी श्रेष्ठ धनुर्धर बन गया। अनेक प्रसिद्ध कलाकारों, खिलाड़ियों, चित्रकारों, संगीतकारों, वैज्ञानिकों तथा साहित्यकारों की सफलता का रहस्य उनका सतत अभ्यास है। प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनि अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त कर लेते थे। इन्हें भी वे सतत अभ्यास के बल पर ही प्राप्त करते थे।

मैं अपने जीवन का एक निजी अनुभव बताना चाहता हूँ। आज मैं उत्तर भारत का सर्वोत्त्म अंडर नाइनटीन स्पिनर हूँ। प्रारंभ में मुझे गेंद डालने में घबराहट हुआ करती थी। मैं चौके-छक्के खाने से डरता था। परंतु, निरंतर अभ्यास ने मुझे एक घातक गेंदबाज बना दिया।

विदयार्थी जीवन भावी जीवन की आधारशिला है। जीवन के इसी काल में मानव जीवन की नींव बनती है। इसी काल में अच्छे या बुरे संस्कार विकसित होते हैं। इसी काल में विदयार्थी के लिए अभ्यास का बहुत महत्त्व होता है, क्योंकि अभ्यास के द्वारा वह विद्या प्राप्त कर सकता है तथा इसी ज्ञान के बल पर भावी जीवमे में उन्नति कर सकता है। ज्ञान की प्राप्ति निरंतर अभ्यास के द्वारा ही होती है। जो विद्यार्थी भाग्यवादी होकर अभ्यास से कतराता है, वह अपने लक्ष्य को कभी प्राप्त नहीं कर सकता। निरंतर अभ्यास से दक्षता, प्रवीणता तथा परिपक्वता आती है।

अभ्यास के बल पर मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी भी कमाल दिखाते हैं। सरकस में पशु-पक्षियों द्वारा दिखाए गए करतब सतत अभ्यास के ही परिणाम हैं। एक बार महान वैज्ञानिक एडीसन से किसी ने उसकी सफलता का रहस्य पूछा, तो उन्होंने कहा-“एक औंस बुधि और एक टन परिश्रम”। यह परिश्रम सतत अभ्यास ही तो था; अतः विद्यार्थियों को चाहिए कि वे ज्ञान प्राप्ति के लिए सतत अभ्यास करें और अपने गंतव्य तक पहुँचें। ‘अभ्यास’ प्रत्येक असफलता को सफलता में बदलने की अमोघ शक्ति रखता है।

(v) ‘सहशिक्षा’ को लेकर हमारे समाज में कुछ दशक पूर्व तक भारी मतभेद पाया जाता था। कुछ परंपरावादी लोग बालक-बालिका की शिक्षा को अलग-अलग परिसरों में देखना चाहते थे परंतु आज स्थिति बदल गई है।

आज सहशिक्षा के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वालों में भी बदलाव आता जा रहा है। वास्तव में ‘लड़के-लड़कियों के एक ही परिसर में साथ-साथ पढ़ने से लड़कों में शालीनता आ जाती है। एक मनोवैज्ञानिक परिवर्तन होने लगता है। लड़कों में कोमलता, विनय, शिष्टाचार, प्रेम, करुणा, दया, सहानुभूति व शालीनता आदि नारी-सुलभ गुणों का स्वयमेव समावेश हो जाता है। इसी प्रकार लड़कियाँ भी पुरुषों की वीरता, साहस, आदि गुणों को ग्रहण कर लेती है। इस प्रकार के आदान

प्रदान से दोनों के व्यक्तित्व में निखार आता है। वे एक-दूसरे की प्रवृत्ति को अधिक अच्छी तरह समझने लगते हैं। उनकी अनावश्यक झिझक दूर होने लगती है, और उनका यह अनुभव उनके भावी जीवन की नौका खेने में पतवार का काम करता है। विवाह तन से अधिक मन के मिलन का नाम है। वे अपने अनुरूप जीवन-साथी का चुनाव करने में समर्थ हो जाते हैं। इस प्रकार सहशिक्षा से उनका अन्त:करण अस्वाभाविक विकृतियों से रहित होकर स्पष्ट व स्वच्छ हो जाता है, और एक सुस्थिर गृहस्थ की नींव रखने में सहायक सिद्ध होता है। इसके साथ ही उनमें स्पर्धा की भावना भी जागृत हो जाती है। दोनों एक दूसरे से आगे बढ़ने की चेष्टा करते हैं। इस पद्धति द्वारा विद्यालयों में शिक्षा का वातावरण बनता है।

सहशिक्षा के विरोधी विद्वानों का कथन है कि यौवन की दहलीज़ पर कदम रखने वाले युवकयुवतियों की जीवन-नौका प्रणय-भावना के प्रथम झोंके में ही इतनी तेजी से बह निकलती है कि विचारों के चप्पू काम ही नहीं करते। लाभ और हानि की विवेक बुद्धि से तोल कर चलना उनके लिए अति कठिन है। इसके लिए परिपक्व बुद्धि चाहिए। शिक्षा तो परिपक्व बुद्धि की कर्मशाला है। सरस्वती बुद्धि को परिपक्व बनाती है। उसमें गंभीरता आती है, व्यक्ति विनम्र हो जाता है। अतः जीवन के फल को पाल में डाल कर पकाने की अपेक्षा यह अच्छा है कि उसे स्वयं ही पकने दिया जाए। इस फिसलन भरे रास्ते पर विश्वामित्र जैसे तपस्वी भी फिसल गए, फिर इन अपरिपक्व बुद्धि वालों से इन परिस्थितियों में ब्रह्मचर्य की आशा करना एक भूल है। इस उम्र में तो व्यक्ति नैतिक मूल्यों को जीवन में घटाने का प्रयत्न करता है। यह परीक्षण-काल नहीं है।

जहाँ तक पारस्परिक गुणों के आदान-प्रदान का संबंध है, प्रेमचंद ने एक स्थल पर कहा है कि ‘यदि पुरुष में स्त्री के गुण आ जाएँ तो यह देवता वन जाता है, और यदि स्त्री में पुरुष के गुण आ जाएँ तो वह कुलटा बन जाती है। ‘ स्त्री और पुरुष में सब गुणों के आदान-प्रदान की आवश्यकता नहीं है दोनों में पृथक्-पृथक् गुणों का होना एक स्वाभाविक क्रिया है। उसे हम ज़बरदस्ती बदलने की चेष्टा क्यों करें? स्त्री और पुरुष की शारीरिक रचना में अंतर होने के कारण उनमें पृथक्पृथक् गुणों का विकास होना अधिक स्वाभाविक है। क्या कोई पुरुष फ्लोरैंस नाइटिंगेल बन सकता है? माँ के वक्षस्थल से फूटने वाला वात्सल्य का स्रोत पुरुष के वक्षस्थल से कैसे फूट सकता है? स्त्री की लज्जाशीलता, करुणा, कोमलता को लेकर पुरुष का काम कैसे चलेगा? और जिन पौरुषेय गुणों के आदान-प्रदान की बात कही जाती है, वे स्त्री के लिए अनिवार्य नहीं है, वास्तव में समानता एक मानवीय और सामाजिक मूल्य है तथा स्त्री और पुरुष के शरीर और स्वभाव का अंतर एक प्राकृतिक पदार्थ है। उनमें से प्रत्येक पूर्ण मनुष्य है, और दोनों मिलकर पूर्णतर बन जाते हैं। अतः सहशिक्षा एक सकारात्मक प्रणाली है।

(vi) (a) साँच को आँच नहीं (मौलिक कहानी) – महापुरुषों ने जीवन के महान् व गहन अनुभवों के आधार पर कुछ उक्तियाँ कही हैं, जो आज भी प्रामाणिक रूप से सत्य सिद्ध होती हैं। ऐसा ही यह कथन है कि “झूठ के पाँव नहीं होते” या “सत्य की कभी हार नहीं होती।” मुझे इस संबंध में एक कहानी स्मरण आ रही है जो इस प्रकार है :

बहुत समय पहले की बात है कि एक व्यापारी अफ़गानिस्तान से एक सुंदर घोड़ा खरीदकर अपने शहर लाहौर की ओर आ रहा था। घर से दस मील की दूरी रह जाने पर उसे थकान अनुभव हुई। उसने घोड़े को चरने के लिए छोड़ दिया और स्वयं एक पेड़ की घनी छाया में लेट गया।

घनी व शीतल छाया ने उस व्यक्ति के थके शरीर पर जादू जैसे मोहक मंत्र डाल दिया। वह क्षण भर में ही खर्राटे लगाने लगा।

थोड़ी देर में एक ठग उस मार्ग से निकल रहा था कि उसका ध्यान सुंदर घोड़े पर पड़ा।घोड़े के रूप ने उसका मन मोह लिया। व्यापारी अभी तक सो रहा था, मौका देखकर ठग ने घोड़े की लगाम को हाथ लगाया तो वह ज़ोर से हिनहिनाया। घोड़े की हिनहिनाहट सुनकर व्यापारी नींद से उठ बैठा। उठकर चारों ओर नज़र दौड़ाई। उसका वह कीमती व सुंदर घोड़ा कहीं दिखाई न दे रहा था। व्यापारी को कुछ न सूझ रहा था।

वह घबरा गया। घबराहट में ही वह एक पेड़ पर चढ़ने लगा और इधर-उधर देखने लगा कि उसका घोड़ा कहाँ है। थोड़ा और ऊपर चढ़ने पर उसने देखा कि कोई व्यक्ति उसके घोड़े की लगाम पकड़े चल रहा है। वह घोड़े पर सवार होने का बार-बार प्रयास कर रहा था परंतु सफल नहीं हो रहा था। व्यापारी नीचे उतरा और अपनी झोली उठाकर ठग के पीछे भागा।

ठग के पास जाकर व्यापारी ने ललकारा – “अरे दुष्ट ! ठहर, मेरा घोड़ा लिए कहाँ जा रहा है?”

“तेरा घोड़ा? तेरा कहाँ से हुआ? चल भाग, ठग कहीं का !” ठग बोला। बोलने के साथ ही उसने घोड़े को तेज़ खींचना शुरू कर दिया।

चलते-चलते दोनों पक्ष हाँफने लगे। शहर निकट आ रहा था। अचानक व्यापारी को एक चौक पर सिपाही खड़ा दिखाई दिया। वह झट से उसके पास जाकर फरियाद करने लगा कि उसका घोड़ा कोई ठग लिए जा रहा है। सिपाही ने आगे बढ़कर ठग को रोका और पूछा

“क्यों रे पाजी ! इस शरीफ़ आदमी का घोड़ा क्यों छीने जा रहे हो?”

ठग ने कहा कि यह झूठ बोल रहा है, घोड़ा मेरा है। सिपाही सच-झूठ का फ़ैसला नहीं कर पाया।

अंततः सिपाही घोड़े को पकड़कर बोला – “चलो थाने ! वहीं चलकर फैसला होगा कि घोड़े का वास्तविक मालिक कौन है।”

व्यापारी घबरा रहा था कि यदि थानेदार ने सबूत माँगा तो वह क्या दिखाएगा। उसे घोड़े की आदतों का भी पता नहीं।

थाने पहुँकर सिपाही ने दोनों को बरामदे में बैठने को कहा और घोड़ा थाने के पीछे बने घुड़साल में ले जाकर बाँध दिया। थानेदार को सूचना दी गई। सारी कथा कही गई। थानेदार अत्यंत प्रतिभाशाली, चतुर वह चेहरा पढ़कर हाल बताने वाला पारखी व्यक्ति था। उसने दोनों को बुलाया और दोनों की आँखों में आँखें डालते हुए प्रश्न पूछा कि घोड़ा किसका है? दोनों ने घोड़े को अपना बताया। थानेदार ने सिपाही के कान में कुछ कहा और फिर उन दोनों की ओर देखा और सिपाही से कहा – “जाओ, घोड़ा पेश करो।”

सिपाही घोड़ा लेकर आया तो उसके मुँह पर काला कपड़ा लपेटा हुआ था। थानेदार ने छूटते ही ठग से पूछा – “बता तेरे घोड़े की कौन-सी आँख बंद है- दाईं या बाईं?” ठग ने घबराकर तुरंत कहा – “हुजूर दाईं !” थानेदार ने घोड़ा व्यापारी को देते हुए ठग को कैद करने की आज्ञा दी क्योंकि घोड़े की कोई आँख बंद न थी। तभी कहते हैं कि साँच को आँच नहीं।

(b) और इस तरह उन्होंने मुझे माफ कर दिया मैं और अजय दोनों मित्र थे। दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे। अजय जहाँ समृद्ध परिवार से था वहीं मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। ऐसा होने पर भी मैं बहुत स्वाभिमानी लड़का था। किसी के आगे हाथ पसारना पसंद नहीं था। मैं पढ़ाई में होशियार होने के साथ खेलकूद में भी हमेशा आगे रहता था। मैं अपने विद्यालय की क्रिकेट टीम का उपकप्तान था। दूसरों की हर संभव सहायता करना मेरी आदत थी। वैसे तो मेरे अनेक मित्र थे परंतु अजय मेरा सबसे प्रिय मित्र था।

मेरे माता-पिता एक कारखाने में काम करते थे। एक दिन कारखाने में काम करते हुए पिता दुर्घटनाग्रस्त हो गए। उनका दायाँ हाथ मशीन में आ गया। डॉक्टर ने बताया कि हाथ को ठीक होने में तीन-चार महीने का वक्त लगेगा। इसलिए तुम्हें तीन महीने घर पर रहकर आराम करना पड़ेगा। इसी विवशता के कारण वे नौकरी पर नहीं जा रहे थे।

पिता के वेतन के अभाव में घर की आर्थिक स्थिति और भी बिगड़ गई। अब घर का खर्च केवल मेरी माता के वेतन पर ही चलता था। वार्षिक परीक्षा निकट आ गई। अंतिम सत्र की फ़ीस तथा परीक्षा शुल्क जमा करना था पर मैं असमंजस में था कि करूँ तो क्या करूँ।

एक दिन कक्षा अध्यापिका ने मुझे अपने कक्ष में बुलाया और अंतिम तिथि तक फ़ीस न जमा करवाने की बात कही। ऐसी स्थिति में परीक्षा में न बैठने तथा विद्यालय से नाम काटने की चेतावनी भी दे डाली। मैं चिंतित हो उठा। अपनी विवशता किसे बताता। मैं हर हाल में परीक्षा में बैठना चाहता था। दो दिन और रातों के चिंतन ने मेरे अंदर अपराधी पैदा कर डाला और मैं अजय की दादी की अंगूठी चुरा लाया, जो ड्रेसिंग टेबल में बेकार-सी पड़ी रहती थी। सोचा कि इतना सोना बेच कर फीस दे दूंगा और अमीर अजय को कुछ अंतर भी नहीं पड़ेगा। मैं अगले दिन अँगूठी बेचने का निश्चय करके विद्यालय गया। सोचा था कि छुट्टी के बाद बेचूंगा। परन्तु कक्षा में बैठते ही कक्षा अध्यापिका ने मुझ से कहा – “रवि, चिंता न करना। तुम्हारी फ़ीस जमा हो गई है। तुम्हारे मित्र अजय ने तुम्हारी सहायता की है। इसे धन्यवाद दो।”

मैं अंदर तक काँप उठा। यह क्या हो गया? मैं स्वार्थवश ऐसा अपराधी क्यों बन गया? अब क्या करूँ? सोचते-सोचते छुट्टी हो गई। सीधा अजय के घर गया। दादी के चरणों में गिर कर क्षमा माँगी और अपना अपराध कह डाला। उदार हृदय वाले उस परिवार के सारे सदस्यों ने मुझे तुरंत माफ़ कर दिया।

प्रश्न 2.
Read the passage given below carefully and answer in Hindi the questions that follow, using your own words :
निम्नलिखित अवतरण को पढ़कर, अंत में दिए गए प्रश्नों के उत्तर अपने शब्दों में लिखिए:

एक राजा का दरबार लगा हुआ था। सर्दियों के दिन थे, इसलिए राजा का दरबार खुले स्थान पर लगा था, पूरी आम सभा सुबह की धूप में बैठी थी। महाराज ने सिंहासन के सामने एक मेज डलवा रखी थी। राजा के परिवार के सभी सदस्य, पंडितजन, दीवान आदि सभी दरबार में बैठे थे।

उसी समय एक व्यक्ति आया और राजा के दरबार में मिलने की आज्ञा माँगी, प्रवेश मिल गया, तो उसने कहा, “मेरे पास दो वस्तुएँ हैं, बिल्कुल एक जैसी लेकिन एक नकली है और एक असली। मैं हर राज्य के राजा के पास जाता हूँ और उन्हें परखने का आग्रह करता हूँ, लेकिन कोई परख नहीं पाते, सब हार जाते हैं और मैं विजेता बनकर घूम रहा हूँ। अब आपके नगर में आया हूँ।”

राजा ने उसे दोनों वस्तुओं को पेश करने का आदेश दिया, तो उसने दोनों वस्तुएँ मेज़ पर रख दीं। बिल्कुल समान आकार, समान रूप-रंग, समान प्रकाश, सब कुछ नख-शिख समान। राजा ने कहा, “ये दोनों वस्तुएँ एक हैं”, तो उस व्यक्ति ने कहा, “हाँ दिखाई तो एक सी देती हैं लेकिन हैं भिन्न। इसमें से एक है बहुत कीमती हीरा और एक है काँच का टुकड़ा, लेकिन रूप रंग सब एक है। कोई आज तक परख नहीं पाया कि कौन सा हीरा है और कौन सा काँच। कोई परख कर बताए कि ये हीरा है या काँच। अगर परख खरी निकली, तो मैं हार जाऊँगा और यह कीमती हीरा मैं आपके राज्य की तिजोरी में जमा करवा दूंगा, यदि कोई न पहचान पाया तो इस हीरे की जो कीमत है उतनी धनराशि आपको मुझे देनी होगी। इसी प्रकार मैं कई राज्यों से जीतता आया हूँ।”

राजा ने कई बार उन दोनों वस्तुओं को गौर से देखकर परखने की कोशिश की और अंत में हार मानते हुए कहा

“मैं तो नहीं परख सकूँगा।”

दीवान बोले – “हम भी हिम्मत नहीं कर सकते, क्योंकि दोनों बिल्कुल समान हैं।”

सब हारे, कोई हिम्मत नहीं जुटा पाया। हारने पर पैसे देने पड़ेंगे, इसका किसी को कोई मलाल नहीं था क्योंकि राजा के पास बहुत धन था लेकिन राजा की प्रतिष्ठा गिर जायेगी, इसका सबको भय था।

कोई व्यक्ति पहचान नहीं पाया। आखिरकार पीछे थोड़ी हलचल हुई। एक अंधा आदमी हाथ में लाठी लेकर उठा। उसने कहा, “मुझे महाराज के पास ले चलो, मैंने सब बातें सुनी हैं और यह भी सुना कि कोई परख नहीं पा रहा है। एक अवसर मुझे भी दो।” एक आदमी के सहारे वह राजा के पास पहुँचा, उसने राजा से प्रार्थना की “मैं तो जन्म से अंधा हूँ फिर भी मुझे एक अवसर दिया जाए जिससे मैं भी एक बार अपनी बदधि को परखें और हो सकता है कि सफल भी हो जाऊँ और यदि सफल न भी हुआ, तो वैसे भी आप तो हारे ही हैं।”

राजा को लगा कि इसे अवसर देने में कोई हर्ज नहीं है और राजा ने उसे अनुमति दे दी। उस अंधे आदमी के हाथ में दोनों वस्तुएँ दे दी गयीं और पूछा गया कि इनमें कौन सा हीरा है और कौन सा काँच?

उस आदमी ने एक मिनट में कह दिया कि यह हीरा है और यह काँच। जो व्यक्ति इतने राज्यों को जीतकर आया था, वह नतमस्तक हो गया और बोला, “सही है, आपने पहचान लिया, आप धन्य हैं! अपने वचन के मुताबिक यह हीरा मैं आपके राज्य की तिजोरी में दे रहा हूँ।” सब बहुत खुश हो गये और जो व्यक्ति आया था वह भी बहुत प्रसन्न हुआ कि कम से कम कोई तो मिला असली और नकली को परखने वाला। राजा और अन्य सभी लोगों ने उस अंधे व्यक्ति से एक ही जिज्ञासा जताई कि, “तुमने यह कैसे पहचाना कि यह हीरा है और वह काँच?”

उस अंधे ने कहा “सीधी सी बात है राजन, धूप में हम सब बैठे हैं, मैंने दोनों को छुआ। जो ठंडा रहा वह हीरा, जो गरम हो गया वह काँच। यही बात हमारे जीवन में भी लागू होती है, जो व्यक्ति बात-बात में अपना आपा खो देता है, गरम हो जाता है और छोटी से छोटी समस्याओं में उलझ जाता है वह काँच जैसा है और जो विपरीत परिस्थितियों में भी सुदृढ़ रहता है और बुद्धि से काम लेता है वही सच्चा हीरा है।

प्रश्न-
(i) राजा का दरबार कहाँ और क्यों लगा था? वहाँ कौन-कौन उपस्थित था? तभी वहाँ कौन, क्या लेकर आया? [4]
(ii) उस व्यक्ति ने उन वस्तुओं की क्या विशेषता बताई तथा राजा के सामने क्या शर्त रखी? [4]
(iii) कोई भी उन वस्तुओं को पहचान क्यों नहीं सका? उन्हें किस बात का डर था? [4]
(iv) अन्त में उन वस्तुओं की पहचान किसने एवं किस प्रकार की? सब लोगों की इस पर क्या प्रतिक्रिया थी?
(v) इस कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है?
उत्तर:
(i) राजा का दरबार खुले स्थान पर धूप में लगा था। राजा के सभी परिजन, पंडित, दीवान आदि उस दरबार में उपस्थित थे। तभी वहाँ एक व्यक्ति दो वस्तुएँ लेकर आया।

(ii) व्यक्ति ने बताया कि उन दो वस्तुओं में एक असली और एक नकली है। वह जिस किसी राज्य के राजा के पास जाता है, कोई भी असली-नकली की परख नहीं कर पाता। अतः वह सदैव विजेता बना रहता है। उसने शर्त रखी कि यदि उसके दरबार में सच्ची परख हो जाए तो वह कीमती हीरा राज्य की तिजोरी में जमा करवा देगा और यदि कोई नहीं परख पाया तो उतनी धनराशि उसे अदा करनी होगी।

(iii) कोई भी दरबारी उन वस्तुओं की परख करने के लिए सामने नहीं आया सभी सोचते थे कि हारने पर उन्हें हीरे के मूल्य की धनराशि अदा करनी पड़ेगी, तो कोई बात नहीं। असली भय यह था कि राजा के समक्ष उनकी प्रतिष्ठा धूमिल हो जाएगी।

(iv) एक अंधा दरबार में आया। उसने दोनों वस्तुओं को हाथ में लेते ही बता दिया कि हीरा कौन-सा है और काँच कौन-सा। अँधे ने बताया कि सभी धूप में बैठे थे। जो धूप में गरम हो गया, वह काँच था और जो शीतल बना रहा, वहीं हीरा था। इस पहचान-परख को देखकर सभी प्रसन्न हो गए।

(v) इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि हमें विपरीत परिस्थितियों में भी सुदृढ़ एवं विवेकशील बने रहना चाहिए। जो शांत होकर परिस्थिति के अनुसार बुद्धि व विवेक से काम लेता है, वहीं सफलता को प्राप्त करता है।

प्रश्न 3.
(a) Correct the following sentences and rewrite :
निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करके लिखिए [5]
(i) तेरे को अध्यापिका ने शीघ्र बुलाया है।
(ii) तुम अकारण बेकार में डर रहे हो।
(iii) प्रातः भ्रमण में कैसी आनन्द आती है।
(iv) इमारत के गिर जाने की आशा है।
(v) मुझे पानी का एक गर्म लोटा चाहिए।

(b) Use the following idioms in sentences of your own to illustrate their meaning :
निम्नलिखित मुहावरों का अर्थ स्पष्ट करने के लिए इन्हें वाक्यों में प्रयुक्त कीजिए :- [5]
(i) कलेजे का टुकड़ा।
(ii) मुँह में पानी भरना।
(iii) रोड़ा अटकाना।
(iv) बाग-बाग होना।
(v) हाथ मलना।
उत्तर:
(a)
(i) तुझे अध्यापिका ने शीघ्र बुलाया है।
(ii) तुम अकारण डर रहे हो।
(iii) प्रातः भ्रमण में कैसा आनंद आता है?
(iv) इमारत के गिर जाने की आशंका है।
(v) मुझे गरम पानी का एक लोटा चाहिए।

(b)
(i) माता-पिता के लिए संतान कलेजे का टुकड़ा होती है।
(ii) इतने लुभावने व्यंजनों की सूची पढ़ते ही मेरे मुँह में पानी भर आया।
(iii) दुर्जन लोग सदैव सज्जनों के कामों में रोड़ा अटकाते फिरते हैं।
(iv) बेटे को पुरस्कार पाते देखकर माँ का दिल बाग-बाग हो गया।
(v) जो समय का सदुपयोग नहीं करते, वे हाथ मलते रह जाते हैं।

Section-B – Prescribed Textbooks (50 Marks)
Answer four questions from this section on at least three of the prescribed textbooks.
गद्य संकलन (Gadya Sanklan)

प्रश्न 4.
“हाँ, और लोग पीछे आते हैं। कई सौ आदमी साथ आये हैं। यहाँ तक आने में सैंकड़ों उठ गये पर सोचता हूँ कि बूढ़े पिता की मुक्ति तो बन गई। धन और है ही किसलिए।”
(i) उपर्युक्त कथन किस पाठ से लिया गया है? इस कथन का वक्ता कौन है? यह कथन किस स्थान पर कहा जा रहा है? [1 1/2]
(ii) वक्ता द्वारा यह कथन किस सन्दर्भ में कहा गया था? [3]
(ii) ‘धन और है ही किसलिए।’ – वक्ता ऐसा क्यों कहता है? [3]
(iv) वक्ता के संबंध में श्रोता को क्या-क्या पता चलता है? उसका प्रभाव श्रोता पर क्या पड़ता है? अन्ततः श्रोता क्या निर्णय लेता है?
उत्तर:
(i) प्रस्तुत कथन पुत्र-प्रेम शीर्षक कहानी में से लिया गया है। इस कथन का वक्ता वह युवक है जो चैतन्यदास को मणिकर्णिका घाट पर मिला था। उसी घाट पर प्रस्तुत कथन कहा जा रहा है।
(ii) वक्ता द्वारा यह कथन अपने दिवंगत पिता की अंत्येष्टि के संदर्भ में कहा गया था।
(iii) युवक यह कथन धन के प्रति उपयोगितावादी दृष्टि को स्पष्ट करता है। वह कहना चाहता है कि धन जीवन के लिए होता है न कि जीवन धन के लिए। चैतन्यदास ने धन के प्रति लालची दृष्टि अपनाई थी। (iv) वक्ता युवक बताता है कि पैसा हाथ का मैल है “यदि जिंदगी है, तो कमा खाऊँगा, मन में यह लालसा तो नहीं रह गई कि पिता को बचाने में कुछ कसर नहीं छोड़ी” यह सुनकर बाबू चैतन्यदास अपने पुत्र की अंत्येष्टि पर हज़ारों रुपये खर्च कर डालता है।

प्रश्न 5.
नीलम का परिचय देते हुए बताइए कि उसके परिवार में कौन-कौन था? वह किस धोखे में अपना जीवन अभी तक व्यतीत कर रही थी? उसे इसका आभास कैसे हुआ? स्पष्ट कीजिए। [12 1/2]
उत्तर:
नीलम की कहानी वास्तव में त्याग, बलिदान और संरक्षण जैसे पारिवारिक मूल्यों और भौतिकवादी संस्कृति के टकराव की कहानी है। इस कहानी की नीलम आज की भौतिकवादी दृष्टि के समक्ष स्वयं को अंतर्वंद्व में खड़ा पाती है। उसे गहरा आघात लगता है कि जिस परिवार के लिए वह आज तक खटती रही है, वह उसे केवल धनोपार्जन का एक माध्यम समझता रहा।

कहानीकार की सारी संवेदना व सहानुभूति कथा-नायिका नीलम के साथ है। इसके साथ ही यहाँ आज के युग की उस अपरिहार्य प्रवृत्ति की ओर भी संकेत किया गया है, जिसमें हर कोई निरंकुश जीवन जीना चाहता है। इसी अंतर्वंद्व को पूरी कहानी में बार-बार संकेतित किया गया है।

पिता के असमय स्वर्गवास के बाद घर का सारा दायित्व युवती नीलम के कंधों पर लाद दिया जाता है। माँ ने यह नहीं सोचा कि उसकी सबसे बड़ी बेटी अर्थात् नीलम का विवाह सबसे बड़ी प्राथमिकता है। वह तो केवल यह सोचती है कि घर का भरण-पोषण, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा और पारिवारिक दायित्वों का एकमात्र आर्थिक स्रोत नीलम ही है। इसलिए वह उसके बीतते यौवन के साथ-साथ उससे वीतराग होती गई। अपनी बेटी की इस भूमिका को कभी भी उसके पारिवारिक सुख के संदर्भ में नहीं परखा गया।

नीलम अपने परिजनों के लिए बलि होती गई और जैसे ही उसके समस्त कर्तव्य पूर्ण हुए, घर का वातावरण बदल गया। घर में उसकी स्थिति एक अनचाहे व्यक्ति या सामान की हो गई। उसे घर से भगाने के लिए पहला अचूक प्रयास होने लगा। सुनियोजित योजना के अधीन उसके लिए विवाह प्रस्ताव लाए गए। परिवार के बोझ से थके बूढ़े-प्रौढ़ दूल्हे वर के रूप में प्रस्तुत किए जाने लगे। यहाँ नीलम का द्वंद्व देखिए –

“पम्मी, मेरी उम्र चाहे जो भी रही हो, मेरे सपने अभी भी किशोर हैं। मेरे भाई लोग, जैसे एंटीक पीसेस मेरे सामने परोस रहे हैं, उनसे उनका कोई मेल नहीं है।” दुख यह है कि नीलम को समझने वाला कोई नहीं है। उसकी बहन भी उसे जिस-तिस को वर के रूप में अपनाने के लिए तर्क देती है और उसकी प्रौढ़ आयु का संदर्भ छेड़ती है तो वह कहती है –

(iv) वक्ता के संबंध में श्रोता को क्या-क्या पता चलता है? उसका प्रभाव श्रोता पर क्या पड़ता है? अन्ततः श्रोता क्या निर्णय लेता है?
उत्तर:
(i) प्रस्तुत कथन पुत्र-प्रेम शीर्षक कहानी में से लिया गया है। इस कथन का वक्ता वह युवक है जो
चैतन्यदास को मणिकर्णिका घाट पर मिला था। उसी घाट पर प्रस्तुत कथन कहा जा रहा है।
(ii) वक्ता द्वारा यह कथन अपने दिवंगत पिता की अंत्येष्टि के संदर्भ में कहा गया था।
(iii) युवक यह कथन धन के प्रति उपयोगितावादी दृष्टि को स्पष्ट करता है। वह कहना चाहता है कि धन जीवन के लिए होता है न कि जीवन धन के लिए। चैतन्यदास ने धन के प्रति लालची दृष्टि अपनाई थी। (iv) वक्ता युवक बताता है कि पैसा हाथ का मैल है “यदि जिंदगी है, तो कमा खाऊँगा, मन में यह __ लालसा तो नहीं रह गई कि पिता को बचाने में कुछ कसर नहीं छोड़ी” यह सुनकर बाबू चैतन्यदास अपने पुत्र की अंत्येष्टि पर हज़ारों रुपये खर्च कर डालता है।

प्रश्न 5.
नीलम का परिचय देते हुए बताइए कि उसके परिवार में कौन-कौन था? वह किस धोखे में अपना जीवन अभी तक व्यतीत कर रही थी? उसे इसका आभास कैसे हुआ? स्पष्ट कीजिए। [12 1/2]
उत्तर:
नीलम की कहानी वास्तव में त्याग, बलिदान और संरक्षण जैसे पारिवारिक मूल्यों और भौतिकवादी संस्कृति के टकराव की कहानी है। इस कहानी की नीलम आज की भौतिकवादी दृष्टि के समक्ष स्वयं को अंतर्वंद्व में खड़ा पाती है। उसे गहरा आघात लगता है कि जिस परिवार के लिए वह आज तक खटती रही है, वह उसे केवल धनोपार्जन का एक माध्यम समझता रहा।

कहानीकार की सारी संवेदना व सहानुभूति कथा-नायिका नीलम के साथ है। इसके साथ ही यहाँ आज के युग की उस अपरिहार्य प्रवृत्ति की ओर भी संकेत किया गया है, जिसमें हर कोई निरंकुश जीवन जीना चाहता है। इसी अंतर्वंद्व को पूरी कहानी में बार-बार संकेतित किया गया है।

पिता के असमय स्वर्गवास के बाद घर का सारा दायित्व युवती नीलम के कंधों पर लाद दिया जाता है। माँ ने यह नहीं सोचा कि उसकी सबसे बड़ी बेटी अर्थात् नीलम का विवाह सबसे बड़ी प्राथमिकता है। वह तो केवल यह सोचती है कि घर का भरण-पोषण, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा और पारिवारिक दायित्वों का एकमात्र आर्थिक स्रोत नीलम ही है। इसलिए वह उसके बीतते यौवन के साथ-साथ उससे वीतराग होती गई। अपनी बेटी की इस भूमिका को कभी भी उसके पारिवारिक सुख के संदर्भ में नहीं परखा गया।

नीलम अपने परिजनों के लिए बलि होती गई और जैसे ही उसके समस्त कर्तव्य पूर्ण हुए, घर का वातावरण बदल गया। घर में उसकी स्थिति एक अनचाहे व्यक्ति या सामान की हो गई। उसे घर से भगाने के लिए पहला अचूक प्रयास होने लगा। सुनियोजित योजना के अधीन उसके लिए विवाह प्रस्ताव लाए गए। परिवार के बोझ से थके बूढ़े-प्रौढ़ दूल्हे वर के रूप में प्रस्तुत किए जाने लगे। यहाँ नीलम का द्वंद्व देखिए –

“पम्मी, मेरी उम्र चाहे जो भी रही हो, मेरे सपने अभी भी किशोर हैं। मेरे भाई लोग, जैसे एंटीक पीसेस मेरे सामने परोस रहे हैं, उनसे उनका कोई मेल नहीं है।” दुख यह है कि नीलम को समझने वाला कोई नहीं है। उसकी बहन भी उसे जिस-तिस को वर के रूप में अपनाने के लिए तर्क देती है और उसकी प्रौढ़ आयु का संदर्भ छेड़ती है तो वह कहती है –

“समय से शादी नहीं हुई, यही तो परेशानी है पम्मी ! पति-पत्नी साथ-साथ बुढ़ाते हैं तो कोई फर्क नहीं पड़ता। उस लंबी यात्रा में इतनी सारी चीजें जिंदगी के साथ जुड़ जाती हैं कि उम्र का अहसास पीछे छूट जाता है।

लेखिका ने नीलम के अंतर्वंद्व को अत्यंत गहराई से पहचाना है। जब उसे अपनी स्थिति का पता चलता है तो वह अंदर से टूट जाती है। संदर्भ लिखिए –

“अल्का कहती है, हम तो जिंदगी को कभी ठीक से एनजॉय नहीं कर पाते। एक अनब्याही ननद का साया हमेशा हमारी खुशियों पर मँडराता रहता है।”

नीलम भीतर-ही-भीतर टूट जाती है। उसे जीवन में कई अवसर मिले थे जब उसे प्रोन्नति के प्रस्ताव थमाए जा रहे थे। परन्तु वह इन्हीं परिजनों का सोचकर उन प्रस्तावों को ठुकरा देती थी। आज वह अपने वंद्व को छिपा नहीं रही। संदर्भ द्रष्टव्य है –

“पम्मी, तुम नहीं जानती, अरमानों को दफ़न करना कितना असहनीय होता है। उन्हें वापस जिलाना तो शायद और भी पीड़ा देगा, और मुझे डर है कि अगर मुझे मजबूर किया गया, तो मैं सपनों के टूटे हुए सिरे को वहीं से उठाना चाहूँगी, जहाँ छोड़ था।”

इस प्रकार वह अपनी नियति के विपरीत सिद्ध होने के परिणाम पर पीड़ित है। उसका वंद्व उसके अतीत और भविष्य के बीच खड़ा है। यही अतीत उसके भविष्य को वर्तमान के कटु यथार्थ से जोड़ते हुए उसे बस्तर की ओर निर्दिष्ट कर देता है।

प्रश्न 6.
‘भक्तिन का जीवन संघर्ष एवं कर्मठता का जीवन्त उदाहरण है’ – उसके जीवन के विभिन्न अध्यायों का वर्णन करते हुए इस कथन की पुष्टि कीजिए। [12 1/2]
उत्तर:
‘भक्तिन’ शीर्षक रेखाचित्र महादेवी वर्मा का एक संस्मरणात्मक रेखाचित्र है जिसमें उन्होंने एक दीन दलित महिला के बालपन से लेकर प्रौढ़ा तक के जीवन के संघर्षपूर्ण दु:खांत को प्रस्तुत किया है। भक्तिन का वास्तविक नाम लछमिन था परंतु उसे इस नाम से जुड़े अतीत के संदर्भो, संघर्षों तथा अपमानों से इतनी व्यथा झेलनी पड़ी कि उसे इस नाम से ही घृणा हो गई। वह लेखिका द्वारा दिए गए भक्तिन नाम को पाकर संतुष्ट हो जाती है। भले ही इस नाम में कोई कवित्व नहीं था।

भक्तिन का अतीत वेदना का भंडार रहा है। वह एक गोपाल कन्या थी। उसके पिता अँसी के गाँव के प्रसिद्ध सूरमा थे और वह उनकी इकलौती कन्या थी। इस स्त्री-धन पर पहला प्रहार उसके बाल-विवाह के रूप में सामने आता है। केवल पाँच वर्ष की इस अबोध कन्या का विवाह कर दिया जाता है और उसकी विमाता ने केवल नौ वर्ष की आयु में उसका गौना कर दिया। अत: विमाता के इस निर्णय के रूप में उस पर कष्टों का एक और बाण छोड़ा गया।

भक्तिन ससुराल गई। पिता को प्राणघातक रोग लगा। उसकी मृत्यु तक का समाचार भक्तिन को नहीं दिया जाता- न विमाता की ओर से और न सास की ओर से। सास ने इतनी दया दिखा दी कि उसे मायके जाकर घूम आने का आदेश दे डाला।

लड़के-लड़की में भेद करना हमारे समाज का मध्यकाल से चला आ रहा एक अपमानमूलक व कलंकपूर्ण नियम रहा है। अतः भक्तिन को तीन-तीन कन्याओं को जन्म देने पर घोर उपेक्षा, अपमान और कुपोषण का शिकार होना पड़ता है। पति का देहांत हुआ तो जेठ-जेठानियों के मुँह में पानी आने लगा कि उसकी संपत्ति किस प्रकार हाथ में आए।

भक्तिन पर दुर्भाग्य का आतंक निरंतर बना रहा। समय पाकर उसकी बड़ी पुत्री विधवा हो गई। यहीं पर बस नहीं हुई। विधवा बहन के गठबंधन के लिए बड़ा जिठौत अपने तीतर लड़ाने वाले साले को बुला लाया। एक दिन माँ की अनुपस्थिति में वर महाशय ने बेटी की कोठरी में घुसकर द्वार बंद कर लिया। उसके साथी गाँव वालों को बुलाने चले गए। बेटी ने उस डकैत वर की खूब पिटाई करके जब द्वार खोला तो वहाँ उपस्थित पंचों ने फैसला सुनाया कि वास्तविकता कुछ भी हो, अब उन दोनों को पति-पत्नी के रूप में रहना पड़ेगा।

गले पड़ा दामाद निठल्ला था। दिन-भर तीतस्लड़ाता रहता था। लगान चुकाना भारी हो गया। जमींदार ने भक्तिन को बुलाकर दिनभर धूप में खड़े रखा। इस अपमान से आहत होकर वह कमाई के विचार से शहर आकर लेखिका की सेविका बन जाती है। महादेवी वर्मा ने इस कटु यथार्थ को अनुभूति की तरलता और गहन संवेदना द्वारा चित्रित किया है कि भारतीय नारी सदा-सदा से दुखों के पहाड़ के नीचे दबती रही है। आज भले ही परिस्थितियाँ बदल रही हों परंतु पुरुषप्रधान समाज में नारी सदैव पिसती तथा पिटती रही है।

काव्य मंजरी (Kavya Manjari)

प्रश्न 7.
किन्तु हम बहते नहीं हैं।
क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे, तो रहेंगे ही नहीं।
पैर उखड़ेंगे, प्लवन होगा, ढहेंगे, सहेंगे बढ़ जाएँगे,
और फिर हम पूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?
(i) कौन बहते नहीं हैं? कविता के प्रसंग में बताइए। [1 1/2]
(ii) ‘बहना रेत होना’ कैसे है? [3]
(iii) ‘बहना’ प्रक्रिया का क्या प्रभाव पड़ता है? कविता के संदर्भ में समझाइए। [3]
(iv) प्रस्तुत कविता का सामाजिक संदर्भ उजागर कीजिए। [5]
उत्तर:
(i) प्रस्तुत काव्यांश ‘नदी के द्वीप’ कविता में से उद्धृत है। द्वीप स्वयं को नदी का हिस्सा तो मानते हैं परंतु वे बहते नहीं हैं। यदि वे धारा के साथ बह जाएँ तो उनका अस्तित्व ही नहीं रहेगा।

(ii) बहना रेत होना है क्योंकि नदी की धारा के साथ मिलकर द्वीप का अपना अस्तित्व ही मिट जाएगा। यदि धारा द्वीप को अपने साथ बहाकर ले जाएगी, तो द्वीप का रूप-स्वरूप नष्ट हो जाएगा। उसका स्वरूप तथा अस्तित्व बहने में नहीं अपितु नदी द्वारा आकार प्रदान करने में है।

(iii) ‘बहना’ प्रक्रिया का प्रभाव यह होता है कि द्वीप की अपनी कोई सत्ता ही नहीं रहती। यदि वे बहने लगेंगे, तो उनका अस्तित्व रेत बन जाएगा और वे नदी की धारा में विलीन हो जाएँगे।

(iv) प्रस्तुत कविता एक प्रतीकात्मक कविता है। इसमें नदी द्वीप तथा भूखंड को प्रतीक के रूप में चुना गया है। इसमें व्यक्ति, समाज और परंपरा के आपसी संबंधों को सर्वथा नवीन दृष्टि से देखा गया है। यहाँ द्वीप, नदी और भूखंड को क्रमश: व्यक्ति, परंपरा और समाज के प्रतीक के रूप में चुना गया है। कवि का विचार है कि जिस प्रकार द्वीप ‘भू’ का ही एक खंड है परंतु नदी के कारण उसका अस्तित्व अलग है, उसी प्रकार व्यक्ति भी समाज का एक अंग है परंतु सामाजिक परंपराएँ उसे विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करती हैं।

प्रश्न 8.
“कवि नागार्जुन ने हिमालय के वर्षाकालीन सौंदर्य का मोहक चित्रण किया है।” पठित कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ के आधार पर व्याख्या कीजिए। [12]
उत्तर:
‘बादल को घिरते देखा है’ शीर्षक कविता आधुनिक कवि नागार्जुन द्वारा लिखित है। इस कविता में बादलों के घिरने से वातावरण से जुड़े प्राकृतिक सौंदर्य का चित्रात्मक वर्णन है। इसमें कवि ने हिमालय के वर्षाकालीन सौंदर्य को आधार बनाया है।

कवि ने निर्मल, चाँदी जैसे सफ़ेद और बर्फ से ढके पर्वतों की चोटियों पर घिरते बादलों की सुंदर व मोहक छटा को देखा। उसने मानसरोवर झील में खिलने वाले सोने जैसे कमल के फूलों पर मोतियों जैसी चमकीली और शीतल जल की बूंदों (ओस) को गिरते हुए देखा। उस पर्वत-माला में हिमालय के ऊँचे शिखर रूपी कंधों पर छोटी-बड़ी कई झीलें दिखाई देती हैं। उन झीलों के नीचे शीतल, स्वच्छ तथा निर्मल जल में गर्मी के ताप के कारण व्याकुल और मैदानों से आए हंसों को कसैले और मधुर कमलनाल के तंतुओं को खोजते हुए देखा जा सकता है।

कवि ने हिमालय के सौंदर्य को वसंत ऋतु के प्रभात के प्रसंग में भी चित्रित किया है। उस समय मंद वायु बह रही होती है। पर्वत की चोटियों पर उगते बाल रूपी सूर्य की किरणें पड़ती हैं। ऐसे में चकवा-चकवी को मानसरोवर के किनारे हरी-हरी घास पर प्रेमालाप करते देखा जा सकता है। वे दोनों अत्यंत प्रसन्न होते हैं क्योंकि शाप के कारण वे रात भर एक-दूसरे से बिछुड़े होते हैं और प्रभात में उनका परस्पर मिलन होता है।

हिमालय की घाटियाँ बर्फ से ढक जाती हैं। सैंकड़ों हजारों फुट ऊँचाई पर सुंदर कस्तूरी हिरण को भी देखा जा सकता है। वह हिरण अपनी ही नाभि से उठने वाली मोहक व मादक गंध के पीछे दौड़ता हुआ स्वयं पर चिढ़ता है।

कवि ने मिथक का सहारा लेते हुए बताया है कि इसी हिमालय पर्वत पर धन के देवता कुबेर का आवास माना जाता है परंतु आज उसका कोई अता-पता नहीं है। आज कुबेर की राजधानी अलका का भी कोई चिह्न नहीं है

“कहाँ गया धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का।”

कालिदास ने मेघदूत की कल्पना भी इसी पर्वत पर की थी। आज उसका भी कोई ठिकाना दिखाई नहीं देता। परंतु भीषण जाड़ों में कैलाश के आकाश को चूमने वाली ऊँची-ऊँची चोटियों पर मेघों की गरज सुनाई दे रही है। कवि ने आगे चित्रण करते हुए किन्नर प्रदेश की शोभा का वर्णन किया है। आकाश में बादलों के छाने से वह प्रदेश शोभा का अनुपम भंडार बन जाता है। सैंकड़ों छोटे-बड़े झरने देवदारु वन को गुंजायमान करते हैं

“शत-शत निर्झर-निर्झरणी-कल
मुखरित देवदारु कानन में,”

इन वनों में लाल और सफ़ेद भोजपत्रों से बनी कुटियाओं में किन्नरों के जोड़े विलास करते हैं। उनके केश विभिन्न रंगों के सुगंधित पुष्पों से सुसज्जित हैं। उनके सुंदर गले शंख जैसे हैं। वे अपने गले में इंद्र नीलमणि की माला पहने हैं, कानों में नील कमल के झुमके हैं तथा उनकी वेणी में लाल कमल गुंथे हैं।

उनके मदिरा-पान के पात्र चाँदी के हैं जिन पर मणियाँ जड़ी होने के कारण वे कलात्मक लगते हैं। वे अपने सामने चंदन की तिपाई पर मदिरा के पात्रों को सजाए हैं।

प्रश्न 9.
महादेवी वर्मा पथिक को क्या प्रेरणा दे रही हैं और क्यों? ‘जाग तुझको दूर जाना’ कविता के आधार पर स्पष्ट कीजिए। [12]
उत्तर:
‘जाग तुझको दूर जाना है’ शीर्षक कविता हिंदी की सुप्रसिद्ध छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा लिखित है। यह कविता एक प्रेरणा-गीत है। इसमें कवयित्री ने मनुष्य को जीवन में निरंतर आगे बढ़ते रहने के लिए प्रेरित किया है। वे कहती हैं कि जीवन-यात्रा कभी भी सहज नहीं होती। हमारे जीवन में अनेक बाधाएँ, संघर्ष व असमर्थताएँ आती रहती हैं। हमें इनका सामना करते हुए आगे बढ़ना है। इन कठिनाइयों से निराश होकर बैठ जाना कर्महीनता होगी।

कविता के प्रथम चरण में महादेवी वर्मा पथिक के आलस्य की ओर संकेत करती हैं। वे कहती हैं कि पथिक की सदा सचेत रहने वाली आँखों में आज आलस्य क्यों भरा है? आज वेशभूषा भी अस्त-व्यस्त क्यों है? क्या तुझे नहीं पता कि तुझे एक लंबी यात्रा तय करनी है, क्योंकि तेरा लक्ष्य अभी बहुत दूर है। अपनी मंज़िल की ओर बढ़ते हुए चाहे कितनी ही बाधाओं का सामना क्यों न करना पड़े, चाहे अडिग रहने वाला हिमालय डोल उठे या सदा शांत रहने वाला अलसाया आकाश प्रलय के आँसू बरसाए अर्थात् भीषण वर्षा करे, चाहे प्रकाश कहीं लेशमात्र न रहे, चाहे चारों ओर घना अंधकार छा जाए या बिजली की भयंकर चमक के साथ तूफान तुझ पर टूट पड़े, पर तुझे निरंतर आगे बढ़ते हुए विनाश और विध्वंस के बीच नव-निर्माण के चिह्न छोड़ते जाना है। इसलिए तुझे आलस्य का त्याग करना होगा, क्योंकि तेरा लक्ष्य बहुत दूर है। अत: तू जाग जा। महादेवी वर्मा सांसारिक आकर्षणों का संदर्भ उठाती हैं।

ये सांसारिक बंधन बहुत आकर्षक लगते हैं, परंतु ये मोम की भाँति हैं जो अत्यंत कोमल तथा बलहीन हैं। हे पथिक (साधक) तुम्हें इन बंधनों को तोड़कर अपने लक्ष्य की ओर अनवरत बढ़ना है। क्या तुझे तितलियों के रंगीन पंखों की तरह सांसारिक सौंदर्य मुग्ध तो नहीं कर लेंगे? तुम्हें भौरों के मधुर गुंजन की तरह सांसारिक जनों की मीठी-मीठी बातों से भ्रमित भी नहीं होना है, तुम्हें ताजे गीले और सुंदर फूलों की तरह सुंदर आँखों में आँसू देखकर द्रवित नहीं होना है, अपितु इन सब का मोह त्याग कर अपने लक्ष्य तक बढ़ना है। हे पथिक ! कहीं ऐसा न हो कि तू अपनी ही छाया से भ्रमित हो जाए। तुझे जागना होगा क्योंकि तुझे अभी बहुत दूर जाना है।

कवयित्री कहती हैं कि तुमने अपना वज्र जैसा कठोर हृदय आँसुओं के कण में धोकर क्यों गलाया, तूने जीवन रूपी अमृत किसे दे दिया और दो घुट मदिरा माँग लाया। आज आँधी सो गई क्या तू चंदन की बात का सहारा लेगा? क्या विश्व का अभिशाप चिर नींद बनकर तेरे पास आया है? हे पथिक ! तू अमरता का पुत्र है अर्थात् जीवात्मा परमात्मा का अंश होने के कारण अमरता का उत्तराधिकारी है। तू मृत्यु को क्यों अपने हृदय में बसाना चाहता है। तुझे तो अमरत्व तक पहुँचने के लिए प्रयास करने होंगे।

महादेवी मनुष्य को समझाना चाहती हैं कि जब हृदय में आग होगी तभी आँखों से करुणा के आँसू बहेंगे। जीवन में हार से कभी न घबराओ क्योंकि वह जीत की सीढ़ी होती है। पतंगे का जीवन क्षणिक है परंतु दीपक के चिह्न अमर होते हैं। जीवन रूपी शय्या भले ही अंगारों से सुसज्जित हो पर हमें उस पर कोमल कलियों को सजाने के प्रयास करने होंगे। अतः जाग्रत होने और आगे बढ़ने की आवश्यकता है।

इस प्रकार कवयित्री ने मनुष्य को जीवन का मूल रहस्य समझाते हुए उसे जीवन रूपी पथ पर निर्भीक होकर अग्रसर होने की प्रेरणा दी है।

सारा आकाश (Saara Akash)

प्रश्न 10.
अपने काँपते और बेज़ान हाथों को निहायत डरते-डरते उसके कंधे पर रखकर भर्राए और खंडित स्वर में कहा,”प्रभा तुम मुझसे नाराज हो ………………………….?” साथ ही मुझे आश्चर्य हो रहा था कि यह कौन मेरे भीतर से बोल रहा है।
(i) प्रभा कौन थी और वह किससे नाराज थी? [1]
(ii) उपन्यास के नायक का नाम लिखते हुए यह स्पष्ट कीजिए कि उसके आत्मविश्लेषण का क्या परिणाम निकला?
(iii) पति ने अपने बदले स्वभाव का परिचय किस प्रकार दिया? [3]
(iv) पति को अपने बदले हुए व्यवहार पर कैसा अनुभव हुआ और इससे क्या स्पष्ट होता है? [5]
उत्तर:
(i) प्रभा समर की पत्नी तथा ‘सारा आकाश’ शीर्षक उपन्यास की नायिका है। वह अपने पति तथा ससुराल पक्ष की यंत्रणा से पीड़ित होने के कारण नाराज़ थी। उसका अपने पति से ‘अबोला’ चल रहा था।
(ii) उपन्यास के नायक का नाम समर है। उसका विवाह छात्रावस्था में ही प्रभा से हो गया था परन्तु लम्बे समय तक दोनों के बीच संबंध मधुर नहीं हो पाए थे। इन दिनों समर में कुछ परिवर्तन आने लगा था। वह आत्मविश्लेषण करके अपने द्वारा पत्नी पर किए गए अत्याचारों का लेखा-जोखा करने लगा था। इसका परिणाम यह निकला कि वह प्रभा से प्रेम करने लगा था।”
(iii) पति समर ने अपने स्वभाव को प्रभा के प्रति संवेदनशील होते हुए बदलना शुरू कर दिया। उसे लगा कि वह बिना किसी अपराध के पारिवारिक अत्याचार वह अपमान सहती आ रही थी। इसीलिए उनका दांपत्य जीवन भी विषाक्त हो चला था। परन्तु अब वह अपनी माँ और भाभी द्वारा दी गई यंत्रणाओं के विपरीत प्रभा से प्रेम करने लगा था और उसका हर बात में ध्यान रखने लगा था।
(iv) पति समर को अपनी पत्नी प्रभा के प्रति बदले हुए स्वभाव पर विस्मय हुआ। उसके अहं को थोड़ी चोट भी पहुँची। जो पति अपनी पत्नी को अब तक दुत्कारता आ रहा था, वही अब उसकी चिंता व अपेक्षा करने लगा था। उसे लगा कि जिस पत्नी ने उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ा और सदैव उसका ध्यान रखा, उससे मन-मुटाव रखना उचित नहीं। फलतः उसका हृदय परिवर्तित हो गया।

प्रश्न 11.
“सारा आकाश” उपन्यास में वर्णित संयुक्त परिवार की समस्याओं के बारे में शिरीष भाई साहब के विचारों को स्पष्ट कीजिए। [12 1/2]
उत्तर:
‘सारा आकाश’ उपन्यास हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार राजेंद्र यादव द्वारा रचित एक पारिवारिक उपन्यास है। इसमें उन्होंने समर के मित्र शिरीष भाई साहब के माध्यम से भारतीय संयुक्त परिवारों की समस्याओं और कुंठाओं का वर्णन किया है।

प्रस्तुत उपन्यास में जिस संयुक्त परिवार की चर्चा हुई है,उसमें बाबूजी-अम्मा, उनके चार पुत्र, दो बहुएँ और दुखद दांपत्य की शिकार विवाहिता पुत्री भी है। इतने सदस्यों के परिवार में आर्थिक स्रोत केवल दो हैं-एक बाबूजी की 25 रु० की मासिक पेंशन और दूसरा बड़े पुत्र धीरज के वेतन के कुल 99 रु० मासिक। यहीं से सारे दुःख, अभाव और ईर्ष्या-भाव पनपने शुरू हो जाते हैं।

उपन्यासकार ने संकेत दिया है कि जहाँ तक संयुक्त परिवार के टूटने के कारणों का संबंध है, यह सत्य है कि समर अपनी पत्नी प्रभा की उपेक्षा करता था और चाहता था कि वह घर में अधिक-से-अधिक काम करे, किंतु क्या उसकी सास ननद या जिठानी का यह फर्ज नहीं था कि वे इस तथ्य की ओर ध्यान देती? बेचारी एक पढ़ी-लिखी लड़की को सारे दिन गृहकार्यों में लगाए रखना कहाँ तक उचित है? यदि समर और प्रभा के संबंध मधुर होते तो प्रभा से इस प्रकार काम लिया जा सकना कठिन था? जैसे ही प्रभा और समर के संबंध मधुर होते हैं, उसको यह देख-देखकर पीड़ा होती है कि घर के अन्य लोग तो निठल्ले रहते हैं, जबकि प्रभा सुबह से लेकर रात ग्यारह साढ़े ग्यारह बजे तक काम में लगी रहती है। वह इस बारे में एक बार जरा-सी शिकायत करता है तो घर में महाभारत छिड़ जाता है। उसकी भाभी जबरदस्ती चूल्हे पर से प्रभा को उठा देती है और यह उपालंभ भी देती जाती है कि “अभी तक एक को खिलाया करती थी-अब दो को खिलाती रहा करूंगी।” उसकी बच्ची रोने लगती है और प्रभा उसको गोद में उठाकर चुप कराने लगती है, तो वह उसकी गोद से उस लड़की को छीन लेती है और ताने कसने लगती है।

सदस्यों का पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष भाव संयुक्त परिवारों के टूटने का एक प्रमुख कारण होता है। प्रस्तुत उपन्यास में दिखाया गया है कि भाभी अर्थात् बड़ी बहू या जिठानी को यह बात सहन नहीं हो पाती कि प्रभा अर्थात् छोटी बहू या देवरानी की सुंदरता की प्रशंसा की जाए। इस ईर्ष्या के कारण ही वह अपने देवर समर के कान प्रभा के विरुद्ध भरती रहती है। वह बार-बार इस बात को दोहराती है,-“प्रभा राजा इंद्र की परी थोड़े ही है, किंतु उसको अपनी सुंदरता का बड़ा घमंड है।” मुहल्ले की स्त्रियों द्वारा प्रभा की शिक्षा अर्थात् मैट्रिक पास होने की प्रशंसा किया जाना भी जिठानी को रुचिकर नहीं लगता, अत: वह उसकी निंदा करते हुए कहती है कि, “वह किसी की लाज-शरम या पर्दा न करके अपने मायके से लाई किताब पढ़ती रहती है।”

यहीं पर बस नहीं है, भाभी समर और प्रभा के बीच खाई को निरंतर गहरा और व्यापक बनाने के प्रयास में लगी रहती है। जब उसे पहली बार रसोई बनानी थी, तो भाभी दाल में अतिरिक्त नमक डाल देती है। परिणाम यह होता है कि भाभी की चाल सफल हो जाती है। समर थाली को ठोकर मार कर उठ जाता है और मुँह में डाला गया पहला कौर उल्टी के रूप में थूक देता है।

भाभी लगातार इस ताक में रहती है कि अपनी देवरानी को नीचा दिखा सके। इसका एक और अवसर मिल जाता है जब उसकी पुत्री का नामकरण संस्कार होता है। प्रभा पूजे गए मिट्टी के गणेश को साधारण मिट्टी का ढेला समझकर उससे बर्तन माँज कर फेंक देती है। इस पर घर में कुहराम मच जाता है। भाभी आसमान सिर पर उठा लेती है। वह इस बात को तूल देते हुए यह सिद्ध करने लगती है कि ऐसा उसकी पुत्री के अशुभ के लिए जानबूझकर किया गया है। अम्मा को तो ऐसे बहाने मिलने ही चाहिए थे। वह और भी उत्तेजित हो जाती है। समर ने तो हद ही कर दी है। वह न केवल उसे गाली देता है परंतु उसे एक भरपूर तमाचा भी जड़ देता है। उसके गाल पर पाँच की पाँच उँगलियाँ छप जाती हैं।

संयुक्त परिवार का दुःख केवल ईर्ष्या तक ही सीमित नहीं है। बाबूजी की डाँट-फटकार अपने आप में एक सामान्य प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया अपने अतीत में मारपीट के रूप में हुआ करती थी जिसके चिह्न समर के शरीर पर नील के रूप में अब तक विद्यमान हैं। इस मारपीट का एकमात्र कारण आर्थिक तंगी है। समर पिता से फीस के रुपए माँगता है।

पिता द्वारा यह पूछने पर कि कितनी फीस जानी है, उससे उत्तर देते नहीं बनता। संदर्भ देखिए”

पच्चीस शब्द का उच्चारण मैंने इस तरह किया मानो मेरे जीवन की पच्चीस साँसें ही बाकी रह गई हैं।”

समर के पिता यह कहते हुए कि वे तो जिंदगी भर हड्डे पेलने के लिए ही जन्मे, पेंशन में मिले पच्चीस रुपए खाट पर डाल देते हैं, तो समर की विचित्र दशा हो जाती है। लेखक के शब्दों में”

मेरी हिम्मत नहीं थी कि सामने पड़े नोटों को उठा लूँ? एकदम मन में आया कि यों ही उल्टे पैरों चला जाऊँ और इस सारी पढ़ाई-लिखाई में लात मार कर कहीं से लाकर रुपयों का इतना बड़ा ढेर लगा कि इन लोगों का भी मन भर जाए। कहूँ, लो कितना रुपया चाहिए, रुपया … रुपया … रुपया।”

अम्मा भी किसी से कम नहीं है। जब प्रभा की साड़ी तार-तार हो जाती है तो समर भाभी से धोती माँगता है। वह कहती है अम्मा से माँगो। जब अम्मा से माँगता है तो वे उस पर टूट पड़ती हैं और दहेज न लाने का ताना देने लगती हैं। इसके विपरीत जब वह नई धोती लाकर प्रभा को देता है तो दोनों स्त्रियों के पेट में शूल उठने लगता है।

उपन्यासकार ने आर्थिक तंगी के साथ-साथ रूढ़िवादी विचारधारा को भी घातक बताया है। प्रभा को घुघट न निकालने पर ताने देना, छत पर दाल बीनने, धूप में बाल सुखाने पर प्रताड़ना आदि ऐसे ही रूढ़िवादी प्रकरण हैं। इस प्रकार उपन्यासकार ने संयुक्त परिवारों के विघटन के लिए सदस्यों की नकारात्मक सोच, अहं, ईर्ष्या-द्वेष और वर्चस्व की भावना को दोषी बताया है।

प्रश्न 12.
‘सारा आकाश’ उपन्यास में समर की भाभी मध्यमवर्गीय परिवार की भाभियों का प्रतिनिधित्व करती है।’ इस कथन को ध्यान में रखते हुए भाभी की चारित्रिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए। [12]
उत्तर:
‘सारा आकाश’ उपन्यास राजेंद्र यादव द्वारा लिखा गया एक यथार्थवादी उपन्यास है। इस उपन्यास के कथानायक की भाभी मध्यवर्गीय परिवार की परंपरागत नारियों का आदर्श प्रस्तुत करती है जिसमें रूढ़िग्रस्तता, ईर्ष्या, और दमन की नीति शामिल रहती है। वह समर के बड़े भाई धीरज की पत्नी है और संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी बहू होने के नाते अपना वर्चस्व बनाए हुए है। उसके चरित्र में निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ देखी
जा सकती हैं-

1. घरेलू नारी-भाभी को उपन्यास में एक घरेलू स्त्री के रूप में दिखाया गया है। वह पढ़ी-लिखी नहीं है। परंतु घर के काम-काज में उसे पूरा कौशल प्राप्त है। वह गृह-व्यवस्था को पूरी तरह अपने हाथ में ले लेती है। इस रूप में वह अम्मा को निश्चिंत बना देती है। उसे घर-परिवार के सुख-दुःख की पूरी समझ है। वह घर की स्थितियों के अनुसार बदलना जानती है।

2. ईर्ष्यालु-भाभी में नारी सुलभ ईर्ष्या की भरपूर मात्रा पाई जाती है। वह प्रभा की जेठानी होने के नाते तो नहीं परंतु उसकी उच्च शिक्षा और सुंदरता के कारण उससे निरंतर जलती रहती है। उसका भरसक प्रयास रहता है कि समर को प्रभा के विरुद्ध उकसाया जाए और प्रभा को अपमानित करवाने का कोई भी अवसर हाथ से न जाने दिया जाए। उसकी यह प्रवृत्ति इस सीमा तक चली जाती है कि पहली रसोई बनाने के उत्सव पर प्रभा द्वारा बनाई गई दाल में अतिरिक्त नमक झोंक देती है ताकि उसकी निंदा हो। हुआ भी यही, समर थाली को ठोकर मारकर खाया हुआ प्रथम ग्रास उल्टी के रूप में थूक आता है। भाभी समर को बहकाते हुए उसके मर्म पर चोट करती रहती है। एक स्थल देखिए

“सो बात तो हमें भी लगती है लाला जी ! प्रभा में थोड़ा-सा अपनी पढ़ाई और खूबसूरती को लेकर गुमान है। मुझसे पूछो तो ऐसी कोई परीजादी भी नहीं है। यों अपनी उमर पर खूबसूरत कौन नहीं होती, हम नहीं थे। अम्माजी नहीं थीं? और कहने के साथ ही वह अपनी बात पर लजा गई।”

भाभी का चरित्र ऐसा है कि वह समर को तनिक भी अहसास नहीं होने देती कि वह उसे प्रभा भड़का रही है।

3. आडंबरप्रिय-भाभी का व्यक्तित्व आडंबर से भरपूर है। वह दिखावा करना जानती है। इसीलिए उसके स्वभाव में प्रदर्शन की भूमिका अधिक रहती है। वह अम्मा, बाबूजी, मुन्नी और समर के सामने निरंतर आडंबर करती देखी जा सकती है। दूसरी ओर उसका प्रभा के प्रति दृष्टिकोण सौत जैसा है। वह नहीं चाहती कि उस घर में कोई उसकी लेशमात्र भी सराहना करे या उसके लिए यह संतोष प्रकट करे। वह समर के सामने प्रभा की हितचिंतक होने का नाटक करते हुए इस प्रकार कहती है

“अच्छा, छोडो लाला जी, तुम भी क्या जरा-जरा-सी बातों में सिर खपाया करते हो।”चलो खाना खा लो। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। तुम्हारा भी खून गरम है और यह भी अभी बच्ची ही है। मैं समझा दूँगी उसे। तब भी ऐसा नहीं करना चाहिए था। पर सबसे बड़ी मुश्किल तो यही है कि अपने को न जाने क्या समझती है? हमें तो बात करने लायक भी नहीं मानती। कोई आए, कोई जाए, न घूघट न पल्ला। बस, किताब ले आई है, अपने घर से, सो उसे ही पढ़ती रहती है। और तो कुछ लायी नहीं है। जो है सो तो है ही, पढ़ाई का दिखावा बहुत है। खैर लाला जी तुम अपनी पढ़ाई लिखाई इस सबके आगे क्यों बरबाद करते हो।”

इस प्रकार वह समर की चहेती होने का आडंबर करती है और उसका मन प्रभा से दूर करने का भरपूर प्रयास करती है।

4. घर पर एकाधिकार-भाभी अम्मा और बाबू जी का मन जीत चुकी है। वे उस पर शत प्रतिशत-विश्वास करते हैं। इसी बात का लाभ उठाकर वह घर पर पूर्णाधिकार जमा लेती है। खाना-पिलाना, उठना-बैठना आदि सब कुछ उसी के संकेत पर होता है। वह प्रभा को भी अपनी इच्छानुसार चलाना चाहती है। वह प्रभा से कहती है

“माफी माँग लो, ऐसी बातों का क्या फायदा, तुम्हीं छोटी बन जाओ।” भाभी घर के सदस्यों को अपनी उँगलियों पर नचाना चाहती है, विशेषतः प्रभा को। इसीलिए उसे नीचा दिखाने के प्रयास में लगी रहती है ताकि सभी उसी पर विश्वास कर सकें। प्रभा की निंदा भी इसी उद्देश्य से की जा रही है

“बहू खाना बनाना नहीं जानती। अब यह सब भी सिखाना होगा। दिखाते वक्त किसी को क्या पता कि खाना किसने बना कर खिलाया है। बड़ी चली थी रिस्टवाच पहनकर खाना बनाने। बोलो घड़ी का तुम चूल्हे में करोगी क्या? या तो फैशन ही कर लो, या काम ही कर लो। अरे पहली बार तो ठीक से बनाकर खिला देतीं। अब चाहे अमरित ही बनाती रहो, यह बात तो अब आने से रही।”

भाभी प्रभा को अपने अधीन करने का हर संभव टोटका आजमाती है। वह उसके अहं को चोट पहुँचाने के लिए दिन-रात सोचती रहती है। उसका विचार है कि उसे समर के सामने नीचा दिखाया जाए। संदर्भ देखिए

“देखो प्रभा, मान जाओ, ऐसा नहीं करते। तुम नयी बहू हो। तुम शुरू से ही ऐसा करोगी तो फिर आगे कैसे चलेगा? तुम्हें तो अभी सारी जिंदगी बितानी है। यह तो सब होता ही रहता है।”

5. रूढ़िवादी-भाभी एक रूढ़िवादी स्त्री है। उसे गली-सड़ी मान्यताओं पर पूरा विश्वास है। वह शगुन-शास्त्र, जादू-टोना, टोटका, पूजा-पाठ आदि के संबंध में पूरी आस्था रखती है। उसकी पुत्री के नामकरण संस्कार के अवसर पर प्रभा ने गणेश की मूर्ति को मिट्टी का ढेला समझ कर उससे बर्तन साफ़ कर लिए। इस पर भाभी खूब कुहराम मचाती है। उसे अंधविश्वास है कि इस प्रकार गणेश जी के अनादर का कुफल उसकी बच्ची को भोगना पड़ेगा। उसकी स्थिति पागलों जैसी हो जाती है। वह आशंका जताते हुए कहती है कि अब इस घर में कुछ न कुछ अनर्थ होगा।

इस प्रकार पूरे उपन्यास में उसे एक मध्यवर्गीय परंपरागत परिवार की भाभी के रूप में चित्रित किया गया है।

‘आषाढ़ का एक दिन’ (Aashad ka EK Din)

प्रश्न 13.
” ………………………….. हमारा शरीर कोमल है, तो क्या हुआ? हम पीड़ा सह सकते हैं। एक बाण प्राण ले सकता है, तो उँगलियों का कोमल स्पर्श प्राण दे भी सकता है।”
(i) प्रस्तुत पंक्तियों में वक्ता किससे संवाद कर रहा है, सन्दर्भ सहित लिखिए। [1 1/2]
(ii) हमारा शरीर कोमल है, तो क्या हुआ? हम पीड़ा सह सकते हैं।’ वक्ता द्वारा ऐसा कहने का प्रयोजन स्पष्ट कीजिए। [3]
(iii) ‘एक बाण प्राण ले सकता है, तो उँगलियों का कोमल स्पर्श प्राण दे भी सकता है।’ पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए। [3]
(iv) ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक की भाषा-शैली की विशेषताएँ बताइए। [5]
उत्तर:
(i) प्रस्तुत पंक्तियों में वक्ता कालिदास है। वह एक कवि हैं। वह यहाँ एक हरिणशावक से संवाद कर रहा है। जिसे गाँव में आए राजकर्मचारी ने बाण द्वारा घायल कर दिया है। कालिदास उसी हरिण
के बच्चे को जीवित रख पाने की चेष्ठा कर रहा है।
(ii) कालिदास हरिणशावक के घायल हो जाने पर अत्यंत पीड़ित अनुभव करता है। हरिण स्वभाव से ही कोमल होते हैं। कालिदास उस बच्चे को पूरी तरह सँभालने का प्रण लेता है ताकि उसे नए प्राण मिल सकें।
(iii) इस पंक्ति का आशय है कि यदि राजकर्मचारी के रूप में कोई निष्ठुर शिकारी उस पर प्रहार कर सकता है तो उसे बचाने वालों की भी कोई कमी नहीं है। कालिदास जैसे न जाने कितने कोमल हृदय वाले ग्रामीण होंगे, जो अहिंसा के मार्ग पर चलकर सब जीवों पर दया करने का संदेश देते होंगे।
(iv) प्रस्तुत नाटक की भाषा कवि कालिदास के समय को ध्यान में रखकर चुनी गई है। अतः इसमें संस्कृतनिष्ठ भाषा का अधिक प्रयोग हुआ है। वस्तुओं आदि के नाम भी संस्कृत से मेल खाते हैं।

मोहन राकेश ने पात्रों, स्थितियों और प्रसंगों को केंद्र में रखकर भाषा चुनी है। स्थान-स्थान पर व्यंग्य, कटाक्ष और हास्य व्यंग्य का भी आश्रय लिया गया है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है –

प्रियुंग : क्यों? तुम्हारे मन में कल्पना नहीं है कि तुम्हारा अपना घर-परिवार हो?
अंबिका : नहीं! इसके मन में यह कल्पना नहीं है।
मल्लिका: माँ !
अंबिका : इसके मन में यह कल्पना नहीं है क्योंकि यह भावना के स्तर पर जीती है। इसके लिए जीवन में ……………
मल्लिकाः तुम उठ क्यों आयीं, माँ? तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक नहीं है, चलो, चलकर लेट रहो।
अंबिका : मैं किसी आनेवाले से बात भी नहीं कर सकती? दिन, मास, वर्ष मुझे घुटते हुए बीत गए हैं। मेरे लिए यह घर घर नहीं, एक काल-गुफा है जिसमें मैं हर समय बंद रहती हूँ। और तुम चाहती हो, मैं किसी से बांत भी न करूँ?
मल्लिकाः परंतु माँ, तुम स्वस्थ नहीं हो।
अंबिका : तुम्हारी अपेक्षा मैं फिर भी अधिक स्वस्थ हूँ।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि मोहन राकेश ने ऐतिहासिक नाटक होते हुए भी इसमें भाषा का शिष्ट व अनुकूल प्रतिमान अपनाया है। उन्होंने नाटक में शब्द को महत्त्व देने पर बल दिया है। अपने जीवन के अंतिम समय में वे ‘नाटक में शब्द’ विषय पर कार्य कर रहे थे। यही कारण है कि लगभग सभी आलोचकों ने इस नाटक को नाट्य-भाषा की चरम उपलब्धि माना है।

प्रश्न 14. ‘विलोम का चरित्र मोहन राकेश की एक अनुपम नाटकीय चरित्र-सृष्टि है’ कथन के आधार पर विलोम की चारित्रिक-विशेषताएँ लिखिए। [12]
उत्तर:
मोहन राकेश ने अपने ऐतिहासिक नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में विलोम के रूप में एक अनुपम नाटकीय चरित्र-सृष्टि की है। उसके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –

1. एकांगी प्रेम-विलोम भी कालिदास की तरह एक कवि है और मल्लिका के प्रति आसक्त है। वह उससे एकांगी प्रेम करता है। वह इस इकतरफा प्रेम को अंत तक खींचता चला जाता है। परंतु मल्लिका की ओर से उसे उपेक्षा, उदासीनता व तिरस्कार ही मिलता है। वह कालिदास को उस तिरस्कार का एकमात्र कारण समझता है। इसीलिए मल्लिका के विषय में कहता है”वह नहीं चाहती कि मैं उस घर में आऊँ , क्योंकि कालिदास नहीं चाहता और कालिदास क्यों नहीं चाहता? क्योंकि मेरी आँखों में उसे अपने हृदय का सत्य झांकता दिखाई देता है। उसे उलझन होती है।

“वह कालिदास से उलझता हुआ एक बार इस तथ्य को स्वीकार भी करता है कि मल्लिका उसे न चाह कर कालिदास को चाहती है-“विलोम क्या है? एक असफल कालिदास …. और कालिदास? एक सफल विलोम ……..”

तथापि विलोम हमें कहीं भी मल्लिका से दुराग्रह करता दिखाई नहीं देता। भले ही उसका प्रेम एकांगी है, किंतु वह अपनी प्रेमिका का अहित कभी नहीं चाहता। वह कालिदास का भी अहित नहीं चाहता। वह कालिदास को बधाई देता है, परंतु स्वर व्यंग्यात्मक रहता है।

2. तर्कशक्ति-विलोम के विषय में कुछ आलोचक भले ही उसे खलनायक की कोटि में रखकर उसके महत्त्व को कम कर देते हैं परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। वह नाटक में एक तर्कशक्ति के रूप में उभरता है। वह एक व्यवहार-कुशल युवक है। उसके तर्कों में उपयोगिता और व्यावहारिक दृष्टि पाई जाती है। एक आलोचक का मत है

“विलोम के तर्कों में ही नहीं, उसकी पूरी जीवन-दृष्टि में एक ऐसी आवश्यकता और अनिवार्यता है कि उसकी गिनती हिंदी नाटक के कुछ अविस्मरणीय पात्रों में होगी। कई प्रकार से विलोम मोहन राकेश की एक अनुपम नाटकीय चरित्र-सृष्टि है।”

3. विचार पक्ष-विलोम में विचार शक्ति की कोई कमी नहीं है। वह अपनी भावनाओं से ऊपर विचार को महत्त्व देता है। इसीलिए उसमें परामर्श और निर्णय की सामर्थ्य है। जब कालिदास के उज्जयिनी जाने का प्रसंग आता है तो वह अपना विचार पक्ष अंबिका के सामने प्रस्तुत करते हुए मल्लिका के हित को केंद्र में रखकर कहता है-

“मैं समझता हूँ उसके जाने के पूर्व ही उसका और मल्लिका का विवाह हो जाना चाहिए …………………………. कालिदास उज्जयिनी चला जाएगा। और मल्लिका, जिसका नाम उसके कारण सारे प्रांतर में अपवाद का विषय बना है, पीछे यहाँ पड़ी रहेगी।” वह कालिदास से भी सीधा यही प्रश्न करता है कि वह यह बता कर जाए कि मल्लिका के साथ वह विवाह कब करेगा? किंतु कालिदास इस प्रश्न पर मौन रहता है।

4. यथार्थवादी-मोहन राकेश ने विलोम का चरित्र यथार्थ के कठिन धरातल पर खड़ा किया है। उसे स्थितियों की पूरी-पूरी समझ है। यही कारण है कि वह कालिदास के उज्जयिनी जाने से पहले मल्लिका के विषय में कोई ठोस निर्णय लेने का प्रस्ताव रखता है। वह अपनी आशंका प्रकट करते हुए कहता है”राजधानी के वैभव में जाकर ग्राम प्रांतर को भूल तो नहीं जाओगे? सुना है वहाँ जाकर व्यक्ति बहुत व्यस्त हो जाता है। वहाँ के जीवन के कई तरह के आकर्षण हैं …………….”रंगशालाएँ हैं, मदिरालय और तरह-तरह की विलास भूमियाँ ……………” आगे की घटनाओं को देखते हुए विलोम के ये शब्द कितने सच सिद्ध होते है।

5. मूल्य-चेतना-पूरे नाटक में विलोम एक ऐसा पात्र है जिसे विभिन्न जीवन-मूल्यों के प्रति गंभीर चेतना से संपन्न पाया जा सकता है। उसे सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्यों की अच्छी समझ है। वह प्रेम संबंधी मूल्यों को भी पहचानता है। इसीलिए जब कालिदास काश्मीर जाते हुए मार्ग में मल्लिका से मिलने नहीं आता तो वह उससे संवेदना के रूप में इस प्रकार कहता है-उसे आना चाहिए। व्यक्ति किसी संबंध-सूत्र को ऐसे नहीं तोड़ता और विशेष रूप से वह, जिसे एक कवि का भावुक हृदय प्राप्त हो। तुम क्या सोचती हो मल्लिका? उसे एक बार आना चाहिए।”

6. अनचाहा अतिथि-विलोम स्वयं को अनचाहा अतिथि बताता है। वास्तव में वह मल्लिका की मानसिकता के प्रसंग में ऐसा कहता है। उसे मल्लिका का प्रेम पाने की आतुरता थी परंतु वह उसे सदैव एक अनचाहे अतिथि की तरह दुत्कारती रहती है। वह एक बार कहता भी है-“अनचाहा अतिथि संभवतः फिर कभी आ पहुँचे।” परंतु वह अनचाहा अतिथि स्वयं नहीं आता अपितु स्वयं वही मल्लिका उसे बुलाकर लाती है। इस अनचाहे अतिथि ने उसे वह सब कुछ दिया जो वह वास्तव में कालिदास से चाहती थी। इस प्रकार विलोम एक सशक्त यथार्थवादी, व्यावहारिक और जीवन-मूल्यों के प्रति जागरूक पात्र के रूप में उभरता है।

प्रश्न 15.
‘ये पन्ने अपने हाथों में बनाकर सिये थे’ – उक्त कथन किसका है और किससे कहा गया है? इन पन्नों के बारे में वक्ता तथा श्रोता के बीच क्या बात-चीत हुई? उनकी बात-चीत में छिपे भाव को स्पष्ट कीजिए। [12]
उत्तर:
प्रस्तुत कथन प्रसिद्ध नाटककार मोहन राकेश द्वारा रचित ऐतिहासिक नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में से उदधृत है। यह कथन नाटक की नायिका और संस्कृत के प्रसिद्ध कवि कालिदास की प्रेमिका मल्लिका द्वारा कहे गए एक संवाद का अनुभाग है।

इस संवाद की पृष्ठभूमि में निराश मल्लिका के जीवन की करुण कथा है। यह वहाँ का संदर्भ है जब निराश मल्लिका अपने-आप से बातें करने लगती है। वह कालिदास के संबंध में सोचती है तो कभी अपनी बच्ची के संबंध में। वह कालिदास के ग्रंथों को उठाती है और उसके बारे में चर्चित कथाओं को दुहराती है। “वही आषाढ़ का दिन है। उसी प्रकार मेघ गरज रहे हैं। वैसे ही वर्षा हो रही है। वही मैं हूँ। उसी घर में हूँ परंतु फिर भी…” उस समय राजकीय वस्त्रों में किंतु क्षत-विक्षत अवस्था में कालिदास वहाँ प्रवेश करता है। दोनों एक-दूसरे को देखते हैं और स्वीकार करते हैं कि दोनों की अपनी और एक-दूसरे की पहचान खो गई है। कालिदास मल्लिका के कमरे में बदली हुई व्यवस्था की चर्चा करता है। वह कालिदास से पूछती है कि उसने काश्मीर छोड़ दिया है? वह कहता है “हाँ”, क्योंकि सत्ता और प्रभुता का मोह छूट गया है, आज मैं उस सब से मुक्त हूँ, जो वर्षों से मुझे कसकता रहा है। काश्मीर में लोग समझते हैं कि मैंने संन्यास ले लिया है, परंतु मैंने संन्यास नहीं लिया। मैं केवल मातृगुप्त के कलेवर से मुक्त हुआ हूँ , जिससे पुनः कालिदास के कलेवर में जी सकूँ।”

कालिदास मल्लिका से अपने प्रेम और आकर्षण की यादों की चर्चा करता है और चाहता है कि जीवन को शुरू से आरंभ किया जाए। तभी द्वार खटखटाने की आवाज़ आती है। कालिदास को स्वर कुछ जानापहचाना सा लगता है परंतु मल्लिका टाल देती है। कालिदास अपने मन की बातें बताता है। वह काश्मीर जाना अपनी ग़लती मानता है। वह मातृभूमि के प्रति अपने स्नेह की बात भी करता है। वह अपनी भिन्नभिन्न रचनाओं की मूल प्रेरणा मल्लिका को ही बताता है। तभी कालिदास की दृष्टि आसन पर रखे कोरे पृष्ठों पर पड़ती है। मल्लिका उसे बताती है कि “ये पत्र मैंने अपने हाथों से बना कर सिए थे। सोचा था तुम राजधानी से आओगे तो मैं तुम्हें यह दूंगी। कहूँगी, इन पृष्ठों पर अपने सबसे बड़े महाकाव्य की रचना करना।” कालिदास आँसुओं से भीगे उस कोरे महाकाव्य को देखता है और कहता है “इस पर तो पहले ही बहुत कुछ लिखा हुआ है ………………………… इन पृष्ठों पर एक महाकाव्य की रचना हो चुकी है ………………………….. अनंत सर्गों के एक महाकाव्य की।” वह एक बार फिर आरंभ से जीवन शुरू करने को कहता है। इतने में अंदर से बच्ची के रोने का स्वर आता है। यह कहती है “यह मेरा वर्तमान है।’ वह बच्ची को लेने अंदर जाती है। इस प्रकार इस संवाद में मल्लिका के कालिदास के प्रति उत्कृष्ट प्रेम, निस्वार्थ भावना व उज्ज्वल भविष्य की चिंता व्यक्त हुई है। उसने कालिदास को पाने के लिए प्रेम नहीं किया था। उसकी त्याग-भावना तथा उससे जुड़ी पीड़ा ही पूरे नाटक का केंद्रबिंदु है।

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